Uttarakhand Deserted Village: उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के 66 गांव लगातार 12वीं बार इस दिवाली पर अंधेरे में डूबे रहेंगे. इन गांवों में न बिजली का कोई संकट है और न मौसम की कोई बाधा, बल्कि वजह यह है कि अब वहां कोई नहीं बचा जो दीप जला सके या रोशनी कर सके. 2011 की जनगणना के बाद इन गांवों को आधिकारिक रूप से वीरान घोषित किया गया था. कभी जीवन और उत्सव से भरे ये गांव अब खामोशी में डूबे पड़े हैं.
भैसकोट गांव, जो मुनस्यारी रोड से कुछ किलोमीटर दूर है, वहां आखिरी दीपावली का दिया करीब 12 साल पहले जला था. अब वहां की पगडंडियां सूनी हैं, पत्थर के घर जर्जर हो चुके हैं और मंदिर की घंटी वर्षों से नहीं बजी. ये गांव अब खाली पड़े हैं, सन्नाटे में बंद हैं, उनकी पत्थर की दीवारें और लकड़ी की शहतीरें धीरे-धीरे सड़न, हवा और काई के आगे घुटने टेक रही हैं.
सैकड़ों गांव केवल नाम के लिए मौजूद
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से पलायन कोई नई बात नहीं है, लेकिन जो कभी मौसमी पलायन था, वह अब स्थायी हो चुका है. राज्य के ग्रामीण विकास और पलायन आयोग के अनुसार, 2011 के बाद से अब तक 734 गांव पूरी तरह से खाली हो चुके हैं, जबकि 565 गांवों में आधे से अधिक लोग जा चुके हैं. केवल पिथौरागढ़ जिले में ही सर्वेक्षणों के अनुसार 100 से अधिक गांव केवल नाम के लिए मौजूद हैं.
पलायन की मुख्य वजहें
हल्द्वानी में बस चुके सुंदर सिंह ने बताया, ‘जब मैं गांव लौटा तो वहां सिर्फ सन्नाटा था. न आवाजें थीं, न रसोई का धुआं. बस एक सुनाई देने वाली खामोशी थी.’ वहीं धारचूला के पास के रहने वाले देवेंद्र सिंह कहते हैं, ‘हम अब शहर में त्योहार मनाते हैं, लेकिन गांव से रिश्ता हर साल कमजोर हो रहा है. अब वहां कोई नहीं जो स्वागत करे.’ पलायन की मुख्य वजहें स्कूलों की कमी, डॉक्टरों का अभाव और रोजगार के अवसरों का न होना. सामाजिक कार्यकर्ता प्रकाश पांडे कहते हैं, ‘लोग गांव छोड़ना नहीं चाहते थे, पर मजबूर थे. जब तक गांवों में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, सड़क और इंटरनेट नहीं पहुंचेगा, तब तक पलायन रुकेगा नहीं.’
प्राकृतिक आपदाओं का डर
सरकार द्वारा ईको-टूरिज्म और क्लस्टर आधारित विकास जैसी योजनाओं के बावजूद स्थिति में खास सुधार नहीं आया है. एक रिपोर्ट के अनुसार, पिथौरागढ़ के 10,000 से अधिक लोग मोबाइल नेटवर्क के लिए 15 किलोमीटर तक पैदल चलते हैं. कुछ गांवों से लोगों ने तेंदुओं के हमले और प्राकृतिक आपदाओं के डर से पलायन किया है. वहीं भारत-चीन सीमा के पास के छह गांव 1962 के युद्ध के बाद से ही खाली पड़े हैं. हालांकि बागेश्वर जिले के खाती और वाछम गांवों ने सामुदायिक पर्यटन के सहारे अपने अस्तित्व को बनाए रखा है, लेकिन अधिकांश गांवों में अब सिर्फ सन्नाटा और टूटी यादें ही बाकी हैं.